पुस्तक | तुलसीदास की काव्यशक्ति |
लेखक | विनय विश्वास |
प्रकाशक | नयी किताब प्रकाशन, दिल्ली |
मूल्य | 450 रुपये |
समीक्षक | रंजन कुमार सिंह |
विनय विश्वास की पुस्तक तुलसीदास की काव्य शक्ति मेरे हाथों में है।
यूं तो राम कथा भारतीय मानस में सदियों से रची-बसी हुई है और वाल्मिकी से लेकर स्वयंभू तक ने और राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त से लेकर महाकवि निराला तक ने अपने-अपने तरीके से इसे अपने काव्य का आधार बनाया है परन्तु तुलसीदास जी ने जो किया, वह अप्रतिम है। इसमें जरा भी संदेह नहीं कि तुलसीदास, रामकथा के महासागर में गहरे पैठने वाले उस सीपी का नाम है, जिसने अपनी कोख में रामचरित मानस जैसे अनमोल मोती को गढ़ा। रामचरित मानस भारतीय जनमानस में कितना धंसा हुआ है, इसे जानने के लिए हमें महानगरों से निकलकर गाँवों तक जाना होगा। रामचरित मानस भारतीय जनमानस को किस कदर जोड़े हुए है, इसे समझने के लिए हमें सात समुन्दर पार कर मॉरिशस एवं फिजी के चक्कर लगाने होंगे।
लेखक का यह कहना बहुत सही है कि धर्म की सकारात्मकता मनुष्य को कमजोर पड़ने पर ताकत देने में है। उसे मौत जैसे हालात का सामना करने के लिए मानसिक मदद करने में है। तभी तो आज से दो-ढाई सौ साल पहले भारत छोड़कर मॉरिशस जाने को मजबूर गिरमिटिया न जाने कितने ही मानसिक संताप तथा शारीरिक यातनाएं सह कर भी अपने धर्म-संस्कार एवं भाषा की रक्षा कर सके। पोर्ट लूई के आप्रवासी घाट पर जब वे उतरे तो उनके हाथों में अपने साधारण से बक्से के साथ असाधारण रामचरित मानस भी था जो कमजोर क्षणों में उनका सबसे बड़ा सहारा बना। किसी ढिबरी की रौशनी में मानस का पाठ करते हुए वे अपने तमाम कष्टों को सहते रह सके।
यह भी सही है कि धर्म वस्तुतः व्यक्तिगत जीवन का हिस्सा है। श्रीराम के प्रति अपनी तमाम भक्ति के बावजूद तुलसीदास जी में जरा भी यह दुराग्रह नहीं कि उनके राम को सभी मानें। और जो उनके राम को नहीं मानने वाला, वह हिन्दू नहीं। तुलसीदास की भक्ति उनके स्वयं का एकांतिक भाव है पर उस भाव का संप्रेषण करने में वे ऐसे सफल रहे हैं कि मानस को पढ़नेवाला आप से आप राम को अपना लेता है। वह स्वयं राम का हो पाए या न हो पाए, पर राम उसके अपने हो जाते हैं। डा0 फादर कामिल बुल्के को उद्धृत करते हुए विनय बताते हैं, तुलसीदास की रचनाओं में कहीं भी राममूर्ति की पूजा के लिए अनुरोध नहीं किया गया है। और फिर इस उक्ति का विस्तार करते हुए विनय लिखते हैं, तुलसीदास सगुण भक्ति के कवि थे। उनके लिए मूर्ति पूजा के लिए प्रेरित करना ही ज्यादा स्वाभाविक होता, लेकिन उनकी रुचि पत्थर से गढ़ी गई मूर्ति की बजाय पीड़ितों की पीड़ा हरनेवाले राम की काव्यमूर्ति गढ़ने में अधिक थी।
तुलसीदास जी सचमुच ही स्वप्नद्रष्टा थे। विनय ने लिखा है, कलिकाल यथार्थ है और रामराज स्वप्न। रामराज वास्तव में आदर्श व्यवस्था है और हरेक आदर्श स्वप्न ही तो होता है। अंग्रेजी में इसके लिए शब्द है यूटोपियन। किसी भी यूटोपियन व्यवस्था के बारे में लिखा-बोला तो जा सकता है पर उसे हकीकत में ढालना कठिन है। इन अर्थों में वह व्यवस्था स्वप्न बनी रहती है। चाहे हम जो भी यत्न कर लें, आदर्श और यथार्थ की दूरी बनी ही रहती है। यथार्थ चाहे कितना ही सुखद, संतुष्टिदायी क्यों न हो, वह आदर्श नहीं हो पाता। कुछ न कुछ ऐसा छूट ही जाता है, जिसे किया जाना बाकी हो। कुछ न कुछ ऐसा जरूर रह जाता है, जिसके बगैर उसे पूरा नहीं कहा जा सकता।
विनय लिखते हैं, तुलसीदास का रामराज एक ऐसी जीवन व्यवस्था है, जिसमें किसी का किसी से बैर नहीं रहता। विषमता नहीं रहती। सब अपने-अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार वेद मार्ग पर चलते हैं। भय, रोग और शोक किसी को नहीं ग्रसते। दैहिक-दैविक-भौतिक ताप किसी को नहीं व्याप्ते। किसी की अकाल मृत्यु नहीं होती। कोई दरिद्र, दीन और दुखी नहीं रहता। कोई मूर्ख और शुभ लक्षणों से रहित नहीं रहता। सब उदार हैं। सब उपकारी हैं। ब्राह्मणों के चरण सेवक हैं। पति एकनारिव्रतधारी है और पत्नी पतिव्रता।
रामराज कवि की कल्पना ही तो है। सर्जक का दिवास्वप्न है यह। क्या कोई समाज भय, रोग और शोक से मुक्त हो सकता है? क्या कोई समाज भय, रोग और शोक से मुक्त हो सका है? दुख की सच्चाई को झुठलाना आसान नहीं। शतुर्मुर्ग की तरह रेत में सिर घुसा लेने से संताप का अस्तित्व मिट नहीं जाता। इस बात को तुलसी से बहुत पहले बुद्ध ने समझा था और दुनिया को समझाया था। दुख है। दुख का कारण है। कारण का निवारण है। निवारण का मार्ग है। तुलसी इस हकीकत से बेखबर नहीं हैं। वह अपने युग, इस कलियुग के हालात से पूरी तरह बाखबर हैं और इसलिए हमें खबरदार करते हुए रामराज की तरफ कदम बढ़ाने के लिए प्रेरित करते हैं। तुलसी का रामराज दरअसल दुख के कारणों का निवारण है और इस निवारण के लिए उन्होंने जो मार्ग चुना है वह है भक्ति का। उनका मानना है कि जिसकी भक्ति श्रीराम में होगी, वह अपने कर्तव्यों से डिगेगा नहीं और ना ही वह मर्यादा का उल्लंघन करेगा।
मैथलीशरण गुप्त के राम कहते हैं, सन्देश यहां मैं नहीं स्वर्ग का लाया, इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया। और यह धरती स्वर्ग तो तब बनेगी ना जब सभी मर्यादाओं में रहें। श्रीराम ऐसा ही करते हैं और जो ऐसा नहीं करता, उसे वह दंडित करते हैं। मर्यादा में बंधकर ही रामराज संभव है। नियमों का पालन जन-जन का कर्तव्य है, क्या राजा, क्या प्रजा।
तुलसीदास स्वयं उस कलियुग की पैदाइश हैं, जहां बार-बार, लगातार मर्यादाएं तोड़ी जा रही थीं। सिर्फ हिन्दू धर्म ही नहीं, समस्त मानवता ही कमजोर पड़ने लगी थी। आदिशंकराचार्य बोद्धों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए केरल से कश्मीर तक निकल पड़े थे। इस कारण हम उन्हें हिन्दू धर्म का उद्धारक मानते हैं। हिन्दू धर्म का पुनर्स्थापन उन्होंने किया, ऐसा हम मानते हैं। पर सच तो यह है कि शास्त्रार्थ में बोद्धों को हराकर उन्होंने ब्राह्मण जाति के वर्चस्व को भले ही बहाल कर दिया हो, पर बोद्धों और जैनियों को अलग-थलग कर के उन्होंने हिन्दू धर्म को कमजोर ही किया, अन्यथा आज हिन्दू धर्म की पताका जापान से लेकर म्यांमार तक और चीन से लेकर श्रीलंका तक में लहरा रही होती।
तुलसीदास जी ने अपने सामने हिन्दू धर्म को बचाने से कहीं और बड़ी चुनौती देखी। मानव मूल्यों को बचाने की चुनौती। वह जानते थे कि मानवता को मर्यादाओं के पालन से ही सुनिश्चित किया जा सकता है। वह अपनी आँखों के सामने पूरे समाज का क्षरण देख रहे थे। वे देख रहे थे, ब्राह्मण वेद बेचनेवाले हो गए हैं और राजा, प्रजा को खा जानेवाले। लोग कामी, क्रोधी और लोभी हो चुके थे। शिक्षा और धर्म, मात्र पेट भरने तक सीमित थी। मतलब यह कि कर्मकांड का पुरजोर चलन था और जातिगत ब्राह्मण अपना उल्लू सीधा करने में लगे थे।
लेकिन यदि ऐसा था और तुलसी इसे जानते थे, तब यह क्या बात हुई कि तुलसीदास ने ब्राह्मणों को श्रेष्ठ बताते हुए अन्य सभी को उनका चरण सेवक घोषित कर दिया। इस आशंका का समाधान मुझे मिला ओशो की वाणी में। महावीर को उद्धृत करते हुए रजनीश कहते हैं, जो देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, किन्ही का भी मन, वाणी और काया से मैथुन का सेवन नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। इसकी व्याख्या करते हुए वह आगे कहते हैं, ब्राह्मण एक उपलब्धि है, एक चित्त की दशा है जहां वासना बिलकुल तिरोहित हो गई है। जहां वासना किसी भी रूप में नहीं पकड़ती।
इन अर्थों में हम शायद ही किसी को ब्राह्मण कह सकें। ब्राह्मणत्व एक ऐसा आदर्श है, जिसकी उपलब्धि स्वप्न या कल्पना है जबकि व्यावहार में वह कल्पनातीत या कि कल्पना से परे है। देखा जाए तो वर्णाश्रम धर्म ऐसा आदर्श है, जिसका पालन रामराज में ही संभव है। हम यह भी कह सकते हैं कि वर्णाश्रम धर्म के पालन से ही रामराज संभव है। यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी होगा कि हमारे ऋषियों ने जिस वर्णाश्रम धर्म को प्रस्तावित किया, उसका जाति से कोई रिश्ता न था। हम आज उसे सामाजिक व्यवस्था से जोड़ कर देखते हैं, लेकिन उसका वास्तविक आधार व्यक्ति की दक्षता या योग्यता पर आधारित उसका कर्तव्यपथ था, जो उसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र में वर्गीकृत करता था। बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों तथा साधु-संतों के लिए भी ब्राह्मण बने रह पाना कठिन है। जितने विश्वामित्र नहीं, उससे अधिक मेनकाएं हैं। महावीर के हवाले से यह बात कही जाने के बावजूद हो सकता है कि आप रजनीश की बात से सहमत न हों। पर क्या यह सही नहीं कि रामकथा के केन्द्र में रावण का विलास है और राम की लड़ाई अकेले सीता का अपहरण करनेवाले रावण से नहीं, बल्कि परस्त्री पर जबरन कब्जा करने वाले बाली से भी है। क्या यह सही नहीं कि महाभारत जहां राजलिप्सा का नतीजा है, वहीं रामायण काम पिपासा का परिणाम। पाँडवों को सिर्फ और सिर्फ पाँच गाँव दे दिए जाते तो महाभारत न होता। लेकिन राम-रावण युद्ध तो दो प्रवृत्तियों की टकराहट थी, जिसकी एक तरफ मर्यादा को तोड़नेवाला रावण है तो इसकी दूसरी ओर मर्यादा का पालन करने वाले राम। प्रवृत्तियों की यह टकराहट तो होनी ही थी। यह कुछ ले-दे के खत्म नहीं की जा सकती थी। कभी रावण के बहाने तो कभी बाली के बहाने, पर यह लड़ाई बार-बार छिड़ती है, छिड़ी ही रहती है।
मेरा अपना मानना है कि रावण या बाली को मारने की योग्यता मर्यादापुरुषोत्तम राम में ही है, किसी और में नहीं। यदि होती तो रामकथा में परशु राम तो शामिल हैं, फिर श्रीराम को अवतरण की जरूरत ही क्या थी? रावण जातिगत ब्राह्मण होकर भी संस्कारगत ब्राह्मण नहीं हो सका और ना ही तुलसी सहजात होने के कारण उसके पक्ष में खड़े हुए। इन अर्थों में तुलसी दास जी ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषक न होकर रामराज की सबसे जरूरी शर्त ब्राह्मणत्व के प्रस्तावक कहे जा सकते हैं – उस ब्राह्मणत्व के जिसकी पूंजी ही उसकी चारित्रिक शुचिता है।
हम इस बात को थोड़ा और गहराई से देखते-समझते हैं। राम अवतार हैं। विष्णु के सातवें अवतार। और विष्णु के छठे अवतार हैं परशु राम। राम तो दोनों ही हैं, एक परशु राम हैं तो दूसरे मर्यादापुरुषोत्तम राम। एक अपने हाथ के परशु के कारण जाने जाते हैं तो दूसरे मर्यादा का पालन करने की वजह से। परशु राम के हाथ में गड़ासा है जिससे वह क्षत्रियों का संहार करते हैं। एक बार नहीं, अनेक बार करते हैं। कौन हैं ये परशु राम? क्या है इनका अभिप्राय? क्या परशु रांम की आकृति हमें लोह युग के मानव का बोध कराती नहीं जान पड़ती? एक ऐसे युग का बोध जब जीतने वाले के हाथों में लोहे की ताकत थी। जिसके हाथों में लौह आयुद्ध होता, वही विजेता होता था। न कोई राज्य था, ना ही कोई साम्राज्य। श्रीराम के समय तो अयोध्या थी, जनकपुरी थी, किष्किंधा थी, श्रीलंका थी। परशु राम के काल में क्या था? श्रीकृष्ण के समय तो मथुरा-वृन्दावन थे, द्वारिका थी, हस्तिनापुर था, गंधार, इंद्रप्रस्थ और अंग थे, पर क्या था परशु राम के समय में? जो औरों को जितनी दूर तक भगा पाता, भगा देता था। जिसके हाथ में लोहे की ताकत होती थी वह दूसरे को खदेड़ देता था और कब्जा जमा लेता था उसकी जमीन पर। यही तो था लौह युग का सच। न कोई नियम थे, ना ही कोई मर्यादा थी। न राज्य की सीमा थी, न राज के नियम थे। यहां तक कि तब के युद्ध के नियमों का उल्लेख भी कहीं नहीं मिलता।
श्लेषण, विश्लेषण, संश्लेषण की शास्वत प्रक्रिया का परिणाम है परशु राम के बाद मर्यादापुरुषोत्तम राम का अवतार। महान विज्ञानी डार्विन ने जिसे मानव के विकास की अवधारणा के जरिये बताया, वही बात हमारे ऋषियों ने दसावतार कथा से समझाने की कोशिश की। वही बात नहीं, बल्कि उससे भी बड़ी बात। मानव के विकास की कहानी जहां जीवों के भौतिक परिवर्तनों की कहानी है, वहीं दसावतार कथा मानव के विकास के साथ-साथ मानवता के विकास की भी कहानी है। डार्विन का सिद्धान्त जहां विशुद्ध जैव विज्ञान का विषय है, वहीं दसावतार जैव विज्ञान के अतिरिक्त भूविज्ञान, नृविज्ञान एवं समाजशास्त्र से भी जुड़ा है। क्या यह सोचना कठिन है कि लौह युग का मनुष्य जब अपनी ही अराजक आपा-थापी से थक गया तब उसने कुछ नियम बनाने का विचार किया हो। यह भी संभव है कि अपने कब्जे की सम्पत्ति को बचाने के लिए ही उसने मर्यादाओं का सहारा लिया हो। वैसे ही जैसे कलिंग विजय के बाद चण्ड अशोक, देवानांप्रिय अशोक में बदल गया। हाल के दिनों में भी हमने यूक्रेन के अनेक क्षेत्रों पर कब्जा जमा लेने के बाद रूसी राष्ट्रपति पुतिन को युद्ध विराम का प्रस्ताव करते देखा।
लौह युग में मानव की सम्पत्ति में सिर्फ जमीन शामिल नहीं थी, जहां वह खेती कर सकता था, बल्कि स्त्री भी शामिल थी, जिसे वह भोग सकता था। लौह युग के मानव को खेती की जमीन चाहिए थी। अतः इस काल में भूमि पर स्वामित्व की शुरुआत हुई। यह भी हो सकता है कि इसी युग में स्त्री पर स्वामित्व का भी आरंभ हुआ हो, जबकि इससे पहले तक वह सामूहिक उपभोग की वस्तु रही हो। नियमों के अभाव में इस युग की एक ही परिपाटी थी, वीरभोग्या वसुन्धरा और वसुधा पर उपलब्ध तमाम वस्तु विजेता के उपभोग की सामग्री मात्र थे।
बाली के लिए सुग्रीव की पत्नी को अपना बनाकर रखना कोई शर्मिंदगी का विषय नहीं था और ना ही रावण के लिए ऐसा था। वे दोनों उस काल या समाज के प्रतिनिधि हैं जब और जहां किसी की भी सम्पत्ति पर, चाहे वह जमीन हो या जोरू, कब्जा जमा लेना न तो शर्मिन्दगी की वजह थी और ना ही कोई जुर्म था। इसीलिए रावण या बाली का मुकाबला परशु राम से न होकर मर्यादापुरुषोत्तम राम से है, जिनके लिए सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन दंड का विषय था। श्री रामकथा में परशु राम की उपस्थिति संभवतः अकारण नहीं है, बल्कि यह इस बात का संकेत है कि भले ही युग बदल गया हो पर लौह युग की प्रवृत्तियां बनी रह गई हैं। विनय ने अपनी पुस्तक में परशु राम – लक्ष्मण संवाद को नाटकीय प्रस्तुति के संदर्भ में देखा है, जो सही भी है। पर मैं इसे दो युगों की विभिन्न प्रवृत्तियों के बीच की टकराहट मानता हूं अन्यथा विष्णु के एक अवतार के रहते उसी दृश्य में उसके पूर्ववर्ती अवतार के होने का कोई औचित्य नहीं था और ना ही लक्ष्मण द्वारा परशु राम पर व्यंग्य बाण दागे जाने का कोई औचित्य था। विनय ने तुलसीदास जी की उन पंकितियों को उद्धृत किया है, जहां लक्ष्मण परशु राम का उपहास करते हैं
मिले न कबहू सुभट रन गाढ़े, द्विज देवता घरहि के बाड़े
अपने अग्रज श्रीराम की तरह मर्यादापुरुषोत्तम नहीं हैं लक्ष्मण। क्रोध उनका सहज स्वभाव है। परशुराम को ललकारते हुए वह कहते हैं, लगता है आज तक आपको युद्ध में कोई सक्षम योद्धा नहीं मिला, इसी लिए आप अपने घर के शेर बने हुए हैं। वह उन्हें कायर से लेकर वाग्वीर तक जाने क्या-क्या कह जाते हैं। उलाहना तो श्रीकृष्ण को भी दी गई, पर उनमें आत्मिक रंग था, प्रेम था। जबकि यहां अपमान ही अपमान है। कटु व्यंग्य है। किसी को भी आहत कर देने वाला कड़वा व्यंग्य।
वैसे भी किसी विष्णु अवतार के साथ हम किसी अन्य विष्णु अवतार को नहीं पाते। न मत्स्य और कूर्म एक साथ आते हैं, न नृसिंह और वामन एक साथ। न राम-कृष्ण एक साथ आते हैं और ना बुद्ध-कल्की साथ-साथ आते हैं। हां, परशु राम ही हमें फिर द्वापर में भी दिखाई देते हैं। आदिम प्रवृतियां युग के बदलने से नहीं बदल जातीं। हालांकि द्वापर में वह उस तरह के उपहास का विषय नहीं बनते। संभवतः इस काल में हमारा आग्रह मर्यादा पालन को लेकर वैसा रह नहीं गया जैसा कि सतयुग में रहा था। इस समय तक हमने आदिम व्यवहार की व्यापहारिकता को स्वीकार कर लिया है। तभी तो स्वयं कृष्ण भी मर्यादा की व्याख्या करते हुए नियमों में ढील दे देते हैं।
यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि बाली की पत्नी बनकर भी तारा को कोई गिला नहीं, जबकि सीता को रावण की पत्नी बनना तो दूर उसकी छाया भी अस्वीकार्य है। मंदोदरी भी पहले बाली की पत्नी थी और रावण उसे भी बलपूर्वक उठा ले गया था। पर मंदोदरी ने भी तारा की तरह ही अपनी स्थितियों से समझौता कर लिया। कहने का मतलब यह कि इस युग में एक ओर जहां मर्यादाएं सुनिश्चित की जा रही थीं, वहीं मर्यादाओं की अनदेखी भी हो रही थी। लक्ष्मण रेखा एक ऐसी ही मर्यादा थी जिसका उल्लंघन स्वयं सीता ने किया, जबकि रावण उसका उल्लंघन करने की बात तक नहीं सोच पाया। लक्ष्मण रेखा मात्र वर्जना है। पर मर्यादा केवल वर्जना नहीं है, वह स्व नियंत्रण भी है। किसी अबोध द्वारा नियमों का उल्लंघन जुर्म नहीं होता पर उसका क्या जो जानते-समझते हुए नियमों का उल्लंघन करे। रावण को वर्जित क्षेत्र की बखूबी पहचान है पर स्वयं अपने आप पर उसका नियंत्रण नहीं है। काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद, ईर्ष्या, स्वार्थ, अहंकार, अन्याय तथा क्रूरता से वह स्वयं को मुक्त नहीं कर पाता। वर्जनाओं का उल्लंघन न करते हुए भी रावण चारित्रिक दुर्बलताओं का दास है। वह सीता को हाथ भी नहीं लगाता, पर उसे पाने की इच्छा से स्वयं को मुक्त भी नहीं कर पाता।
ऐसे में तुलसीदास जी के लिए ब्राह्मणत्व की प्रतिष्ठा, वर्ण व्यवस्था में अपनी जाति को उच्च स्थान देने की युक्ति न होकर यौनाचार एवं दुराचार रहित समाज का आवश्क तत्वबोध था। यदि उन्हें ब्राह्मण जाति को उच्च दिखाना होता तो फिर उन्हें किसी ऐसी कथा को कहने की क्या जरूरत थी जिसमें ब्राह्मण ही खलनायक हो। तुलसी दास जी बखूबी जानते थे कि किसी खास परिवार में जन्म लेने मात्र से ही कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता। जो सच्चा ब्राह्मण है, उसका चरण सेवक होना भी सौभाग्य है। तभी तो वह कहते हैं,
आपु आपने ते अधिक जेहि प्रिय सीताराम
तेहि के पग की पानहीं तुलसी तनु को चाम
मर्यादापुरुषोत्तम राम को अपने से भी बढ़कर मानने वाला ही सच्चा ब्राह्मण है। यानी अपनी लिप्सा और लालसा का त्याग कर मर्यादाओं का वरण करनेवाला ही ब्राह्मण है। ऐसे ब्राह्मण का चरण सेवक होना तो क्या, उसके पैरों की जूती होना भी सौभाग्य का विषय है।
तुलसीदास के काव्य में वाकई वह शक्ति है जो हमारे भीतर के राम का आह्वान कर सके। अब यह हमपर है कि हम खुद अपने आपको कितना सुनते हैं और कितनी अनसुनी करते हैं या फिर सुनकर ही अनसुनी कर देते हैं।