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पुस्तक | काँच के पार दुनिया |
कवि | राजेन्द्र उपाध्याय |
प्रकाशक | अयन प्रकाशन, नई दिल्ली |
मूल्य | 360 रुपये |
समीक्षक | रंजन कुमार सिंह |
हिन्दी कवि राजेन्द्र उपाध्याय का नया काव्य संग्रह काँच के पार की दुनिया मेरे हाथों में है। पुस्तक के नाम के साथ ही उसे उपनाम भी दिया गया है, अमेरिका कविताएं। इसमें संग्रहित कविताएं 1994 में अमेरिका प्रवास के दौरान लिखी गईं। तब उनकी उम्र थी 38 वर्ष। सौ डालर में एक माह का रेल पास लेकर वह ऐमट्रैक में बैठ गए और सैन फ्रांसिसको से न्यू यार्क तक घूमते रहे। वह फिलाडेल्फिया भी गए और लास एंजेल्स भी, बोस्टन भी गए और शिकागो भी। न्यू यार्क से लेकर वाशिंगटन तक हो आए उसी एक रेल पास से। उनके अनुसार, काँच के पार की दुनिया में उनके उसी सैर-सपाटे का वृत्तांत है।
संयोग से, उससे दस साल पहले मैं भी अमेरिका गया था और तब मैंने एक माह का बस पास लिया था। उसकी कीमत भी सौ डालर ही थी। राजेन्द्र जी ने ऐमट्रैक से यात्रा करते हुए पश्चिम से पूरब का सफर तय किया था, जबकि मैंने ग्रेहॉंड से उत्तर से दक्षिण का सफर तय किया था। मेरी यात्रा शुरु हुई थी मेरीलैंड से और वहां से मैं सेराक्रूज गया था। फिर फिलाडेल्फिया, ओहायो आदि होता हुआ सुदूर दक्षिण में ऑरलैंडो तक गया था। इस तरह वह जहां ट्रेन की काँच के पार की दुनिया देख रहे थे, वहीं मैं बस की काँच के पार से दुनिया को निरख रहा था।
यह भी संयोग ही है कि वहां रहते हुए मैं अपनी इन यात्राओं का वृत्तांत लिखता रहा, पर वे पद्य में न होकर गद्य में थे। मेरे वे संस्मरण पुस्तकाकार में अजनबी शहर, अजनबी रास्ते नाम से प्रकाशित हुए। वैसे तो राजेन्द्र उपाध्याय ने यात्रा वृत्तांत से लेकर कहानियां तक लिखे हैं, पर उनकी ख्याति कवि रूप में ही है। वे उन कवियों में हैं जिन्हें स्वनामधन्य अज्ञेय का आशीर्वाद प्राप्त रहा। अज्ञेय उनकी रचनाओं को पांचवें सप्तक में शामिल करना चाहते थे पर शायद जो प्रतिष्ठा राजेन्द्र जी को मिलनी चाहिए थी, वह उन्हें नहीं मिली। इसका मलाल उनकी लेखनी में देखा जा सकता है जब वह लिखते हैं, “मेरी भाषा मुझे पुरस्कार नहीं देती तो क्या/ मैं कवियों के परिवार में पैदा न हुआ तो क्या/ मैं कविता लिखकर मरूंगा जब भी मरूंगा”.
बोलचाल की भाषा को राजेन्द्र जी अपनी कविताओं में इस तरह अपना लेते हैं कि उनकी कविताएं आपसे आप पाठकों से संवाद करने लगती हैं। भाषा का आडम्बर उनकी कविताओं में नहीं है पर चमत्कार वे तब भी उतना ही पैदा करती हैं। वह लिखते हैं, “हम कठपुतली हैं/ पर हम नहीं जानते कि/ हम कठपुतली हैं…. हम जानते हैं कि/ हम कठपुतली हैं/ फिर भी हम कठपुतली बने रहते हैं…”
ऐमट्रैक की काँच के पार की दुनिया देखते-देखते कब वह हावड़ा मेल की खिड़की से देखने लग पड़ते हैं, यह समझ पाना मुश्किल है। उन्होंने जिस अमेरिका को देखा है, वह “विकासशील देशों को जहर से नहीं/ अमृत से मारता है धीरे-धीरे”.. उन्होंने जिस अमेरिकी ट्रेन से सफर किया है, “फर्श पर कालीन बिछा है इसमें/ पर तुम उसपर सो नहीं सकते”… यह सब उन्हें अजीब-सा लगता है क्योंकि अपने यहां तो चाहे पंजाब मेल हो या तूफान मेल, हमने उससे लटकते हुए यात्रियों को ही देखा है। यह स्थिति अमेरिकियों के लिए अजीबो-गरीब है। उन्होंने तो “सुना है तुम्हारे देश में रेल की छत पर बैठते हैं लोग”… और वे बताते हैं, “मैंने गाँधी फिल्म में देखा है”… जैसे अमेरिकियों को फिल्म गाँधी के दृश्य में भारतीय रेल को देखकर हैरत होती है, वैसे ही राजेन्द्र जी के लिए भी यह आश्चर्य का विषय हो जाता है कि वहां “दूध मुँहे बच्चे माँ से अलग सोएं, इस देश का कानून है”..
कौतुक से ज्यादा यह सब किसी सांस्कृतिक झटके के तौर पर उनके सामने आता है। पर साथ ही साथ वह वहां की नागरिक सुविधाओं के कायल भी होते जाते हैं, खासकर यह देखकर कहां तो वहाँ कुत्तों के भी अस्पताल हैं और कहां मेरे देश में आदमी के लिए भी कई जगह/ अस्पताल नहीं है… राजेन्द्र जी यह देखकर भी भौंचक रह जाते हैं कि “गरीबी नहीं/ भूख नहीं/ कपड़ा नहीं/ मकान नहीं/ कुँआरा मातृत्व वहां की सबसे बड़ी समस्या है”। ये तमाम त्रासद स्थितियां आम बोलचाल के लहजे में उनकी कविताओं में व्यक्त हुए हैं।
अमेरिका की चकाचौंध के बावजूद खुद उस देश की त्रासदी भी उनकी नजरों से छिप नहीं पाती। वह कहते हैं, “चाँद पर चले गए/ तो क्या? / आगे क्या? / आगे क्या? / आगे क्या?” वह चाहकर भी यह बात भूल नहीं पाते कि “सुपरमैन / घोड़े से गिरकर / मर जाते हैं।” शायद यही अहसास उन्हें अमेरिका में बसने से रोकता है। कहने वाले तो उन्हें यह कहते ही रहे कि “कुछ भी कर लेते / झाड़ू पोछा बर्तन बासन…. रह जाते वहीं जहां दूध की नदियां / सोने की चिड़िया है अब।” पर उन्हें तो माँ की याद भी सताती है और रुनझुन-रुनझुन करती चलती अपने गाँव की नदी भी याद हो आती है।
उन्हें पढ़ते-पढ़ते मैं सोचने लग पड़ता हूँ, मैं ही कहां रह पाया अमेरिका में जाकर। मैं तो जिस उम्र में गया था, उस उम्र में लोग वहां से लौटते हैं बीबी साथ लेकर और मैं लौटा तो कम्प्युटर लेकर! अजनबी शहर, अजनबी रास्ते की भूमिका याद हो आती है, जहां गुरुदेव श्री अजित कुमार जी ने लिखा, “रंजन कुमार सिंह का यह सफरनामा पढ़ते हुए मैंने कई तरह की खुशियां महसूस कीं। सबसे ज्यादा तो यह कि मेरा एक प्रिय शिष्य इतन कम उम्र में ही समृद्धि और वैभव के उस विस्तृत लोक को मंझा आया जो आज भी अधिकतर भारतवासियों के लिए केवल कल्पनाओं का चित्र-विचित्र मायालोक भर बना हुआ है। फिर यह कि पातालपुरी में एक बार पहुंचने के बाद विरले ही उसके इन्द्रजाल से मुक्त हो पाते हैं, आयुष्मान रंजन कुमार वहां से इस तथाकथित देवताओं की प्रिय भारतभूमि में लौटकर आए और हम सबको साबुत, सही-सलामत मिले।”
कहने की जरूरत नहीं कि राजेन्द्र जी का काव्य संग्रह पढ़ते हुए मैं अमेरिका के अपने अनुभवों में डूबता-उतराता रहा। अपने उन अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि अमेरिका के मकड़जाल से खुद को छुड़ाकर निकल आना कोई आसान काम नहीं है। अमेरिका की उपभोक्तावादी संस्कृति स्वतः ही बांधनेवाली है। मेरी ही तरह वहां रहते हुए राजेन्द्र उपाध्याय के सामने भी ये सवाल आते रहे, “दुनिया में जब इतनी चीजें हैं खाने को/ तुम एक रोटी के ही पीछे क्यों पड़े हो?… दुनिया में जब इतनी चीजें हैं पीने को/ तुम एक पानी के ही पीछे क्यों पड़े हो?”… एक ही झटके में राजेन्द्र जी की यात्रा उन्हें अमेरिका से भारत के नौकुचिया ताल में पहुंचा देती है। अपने पैरों को पानी में डालकर वह सोचने लग पड़ते हैं, “पृथ्वी के किस अतलगर्त में/ थे मेरे पैर/ क्या समुद्र की अथाह गहराई में?”
वाह!
बहुत सुंदर आप भी अमेरिका की सेर कर आए ।