पुस्तक | औरंगाबाद की कहानी |
लेखक | धीरेन्द्र कुमार मिश्र |
प्रकाशक | उमगा पब्लिकेशन्स, बोकारो |
मूल्य | 500 रुपये |
समीक्षक | रंजन कुमार सिंह |
औरंगाबाद की कहानी जीवन्त दस्तावेज है। इसमें एक तरफ जहां जिले की धड़कन है, वहीं दूसरी तरफ उसकी रूह भी है। औरंगाबाद जिले का इतिहास, भूगोल, समाज सब का सब इसमें समाया हुआ है। इतना ही नहीं, जिले का उद्योग, पर्यटन, संस्कृति, कृषि कुछ भी इसकी हद से बाहर नहीं रहा है। तीन सौ से भी अधिक पन्नों की यह पुस्तक इतनी सूचनाएं और जानकारियां समेटे हुए हैं कि इसे औरंगाबाद का विश्वकोष कहना सही होगा।
पुस्तक में कुल मिलाकर 45 खंड हैं। संदर्भ ग्रंथ सूची को मिला लें तो 46 खंड। कहानी शुरु होती है औरंगाबाद जिले के ऐतिहासिक सिंहावलोकन से और जाकर खत्म होती है जिले के सामान्य परिचय पर। जिले से जुड़ी तमाम सूचनाओं और जानकारियों को एक ही जिल्द में समेटने के लिए 108 संदर्भ ग्रंथों को आधार बनाया गया है। इस वृहत और विषद कार्य को पूरा करने लिए लेखक-संपादक की जोड़ी, धीरेन्द्र कुमार मिश्र तथा प्रेमेन्दर् मिश्र को जितना धन्यवाद दिया जाए, वह कम है।
देश में औरंगाबाद की पहचान बिहार से अधिक महाराष्ट्र से है। महाराष्ट्र स्थित औरंगाबाद जिला अपनी सांस्कृतिक चेतना के कारण जग जाहिर है। विश्व प्रसिद्ध अजन्ता तथा एलोरा की गुफाएं यहीं अवस्थित हैं। औरंगाबाद का नाम लेते ही, यही जिला जेहन में चला आता है। देश-विदेश में जब मैं सगर्व बताता हूं कि मैं औरंगाबाद का रहनेवाला हूं तो लोग झट से उसे महाराष्ट्र् से जोड़कर अजन्ता-एलोरा के बारे में पूछ बैठते हैं या फिर अपने स्वयं के औरंगाबाद भ्रमण की याद करने लगते हैं। ऐसे में मुझे स्पष्ट करना जरूरी हो जाता है मैं महाराष्ट्र के औरंगाबाद से नहीं, बल्कि बिहार के औरंगाबाद से संबंध रखता हूं। लोग आश्चर्य से पूछ बैठते हैं, अच्छा, बिहार में भी है औरंगाबाद?
तब मैं उन्हे याद दिलाता हूं, ध्यान है पश्चिम बंगाल के पुरुलिया में पैराशूट से शस्त्र गिराए गए थे? लोग अमूमन हां में जवाब देते हैं। यह एक ऐसी घटना थी जिसे भुला पाना मुश्किल है। तब मैं उन्हें बताता हूं, दरअसल वे शस्त्र पुरलिया के लिए नहीं, औरंगाबाद के लिए भेजे गए थे। गलती से वह वहां जा गिरे। लोग इसपर अवाक रह जाते हैं या फिर अपनी यादों को फिर से टटोलकर कहते हैं, अरे, औरंगाबाद तो नक्सल बेल्ट में आता है। सब मैं संदर्भ को सही कर पाता हूं, मैं उसी औरंगाबाद से आता हूं। सामाजिक-राजनीतिक जिन्दगी मेरी भले ही औरंगाबाद से जुड़ी रही हो पर मेरा पेशेवर सफर अधिकतर कश्मीर का रहा है। फौज के साथ ही नहीं, बल्कि आतंकवादी हमलों में पीड़ित जनों के बीच भी काम करने का मौका मुझे मिला है।
मेरे सबसे कठिन कामों में एक था पूरे लाईन ऑफ कंट्रोल का सफर और वहां पर फौजियों तथा नागरिको के जनजीवन पर आधारित फिल्म का निर्माण। और उससे भी कहीं ज्यादा कठिन मिशन था, आतंकवादियों की शिकार महिलाओं से साक्षात्कार। औरंगाबाद में जब रात में सन्नाटा पसर जाता था, तब भी मैं अपनी गाड़ी उठाकर चल देता था। लोग पूछते थे, डर नहीं लगता है आपको? मैं उन्हें हँस कर यही कहता था, डर कैसा, मैं कश्मीर में रहा हूं। वहां आतंकवादियों की नाक के नीचे उनके खिलाफ सबूत जुटाए हैं, फिर औरंगाबाद से क्या डर! उसी तरह जब लोग मुझसे पूछटे थे कि आप कश्मीर में ऐसे खतरनाक मिशन पर काम कर रहे हैं, आपको डर नहीं लगता तो मैं उन्हें भी हँस कर यही कहता था कि औरंगाबाद के आदमी को कश्मीर तो क्या, दुनिया के किसी कोने में डर नहीं सग सकता।
बहरहाल, औरंगाबाद की पहचान नक्सल गतिविदिय़ों की वजह से तो बनी पर उसकी सांस्कृतिक छटा के कारण नहीं बन सकी। जबकि जिले की सांस्कृतिक विरासत बहुत बड़ी है और महाराष्ट्र के औरंगाबाद से किसी तरह कम नहीं है। औरंगाबाद का पीरो महाकवि बाणभट्ट की जन्मस्थली बताई जाती है तो शमशेरनगर मयूरभट्ट की। च्वयनप्राश को अपना नाम देनेवाले ऋषि च्वयन का संबंध यहां के देवकुंड से रहा तो हसपुरा ऋषि वात्स्यायन की कर्मभूमि रही। मनुष्य के जीवन में स्वास्थ्य और सेक्स दो ऐसे तत्व हैं जिनसे उसका जुड़ाव आदिकाल से ही रहा है और जिनके लिए उसकी लालसा अनन्तकाल तक बनी रहेगी। कभी-कभी सोचता हूं कि किसी और राज्य में यदि ऋषि च्वयन तथा ऋषि वात्स्यायन हुए होते तो वह वहां उनके नाम से विश्वस्तरीय पर्यटन केन्द्र का निर्माण करा देता, पर बिहार को इसकी कीं कोई चिन्ता ही नहीं। जिस वात्स्यायन को दुनिया में सबसे अधिक पढ़ा जाता है, उसकी कर्मभूमि पर यदि कोई म्यूजियम बना दिया जाए तो क्या देश-विदेश के पर्यटक वहां टूट न पड़ेंगे। खेद है कि बिहार बुद्ध सर्किट से आगे अपने पर्यटन स्थलों का विस्तार करने के बारे में कभी सोच ही नहीं पाया।
मेरी बहुत इच्छा रही है कि जैसे महाराष्ट्र के औरंगाबाद की बड़ी सांस्कृतिक पहचान है, वैसे ही मेरे औरंगाबाद की भी पहचान बने। यही सोचकर मैं कुछ न कुछ करता रहता हूं। वर्षों पहले मैं इसी इरादे से भारतीय पुरातत्व परिषद के पुराविद डा0 डी0वी0 शर्मा को लेकर औरंगाबाद आया था। उन्होंने उस दौरे में देव तथा उमगा मंदिरों को लेकर हमारी बहुत सी जानकारी तो बढ़ाई ही, वह हमें एक बहुत बड़ी बात कह गए। उन्होंने वहां के पुरावशेषों के आधार पर मत व्यक्त किया कि राजनीतिक तौर पर औरंगाबाद भले ही मगध का हिस्सा रहा हो पर उसकी संस्कृति सोणभद्र नद से जुड़ी है। यही वजह है कि यहां बौद्ध प्रभाव न होकर शाक्त प्रभाव अधिक है। उनके अनुसार उमगा शक्तिपीठ है, ना कि सूर्य मंदिर। देव में भी उन्होंने शैव प्रभाव को रेखांकित किया।
अपने देव के सूर्य मंदिर को अंतरराष्ट्रीय पहचान देने के मकसद से ही मैंने देश-विदेश के अन्य सूर्य मंदिरों का अध्ययन किया और फिर सात सूर्य मंदिरो को आधार बना कर पुस्तक लिखी, जिसमें एक अध्याय देव सूर्य मंदिर को समर्पित है। यह पुस्तक अंग्रेजी में है। औरंगाबाद की सांस्कृतिक विरासत को लेकर मेरा आलेख अंग्रेजी के जर्नल ऑफ हिस्टरी, आर्ट एंड आर्कोलॉजी में भी प्रकाशित हुआ है। मेरा मानना है कि बिहार के औरंगाबाद को उसकी सांस्कृतिक महत्ता दिलाने के लिए अभी बहुत-बहुत लिखा जाना है। औरंगाबाद की कहानी पुस्तक उसी दिशा में एक ईमानदार कोशिश है।
हां, चलते-चलते दो बातें और। औरंगाबाद से मेरे और मेरे पूर्वजो के संबंध से तो सभी वाकिफ हैं, पर पुराने लोगों को यह भी मालूंम है कि मेरी माँ के दादाजी स्व0 रायबहादुर रामेश्वर प्रसाद सिंह जी ब्रिटिश काल में औरंगाबाद के एसडीओ के तौर पर अंचल की प्रगति में सहभागी हुए। अनुग्रह बाबू तथा मेरे दादा जी स्व0 कामता प्रसाद काम जी से उनका निकटस्थ संपर्क बना और राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति उनकी हमेशा सहानुभूति रही। तो और, मेरी पत्नी के दादाजी स्व0 जमुना सिंह जी ने भी गेट स्कूल (तब उसका यही नाम था) के प्रिंसिपल के तौर पर जिले की सेवा की। मैं स्वयं तो कभी उनके दर्शन नहीं कर सका पर औरंगाबाद के पुराने लोग बताते हैं कि गेट स्कूल में उन जैसा प्रशासक फिर नहीं आया।
और दूसरी बात। जब 26 जनवरी 1973 को औरंगाबाद जिले की स्थापना हुई, तब पिताजी स्व0 शंकर दयाल सिंह चतरा से सांसद थे पर जिले के स्थापना समारोह में वही शामिल हुए, जबकि औरंगाबाद के तत्कालीन सांसद के सत्येन्द्र बाबू यानी छोटे साहब उसमें शामिल नहीं हुए।
चलते-चलते और एक बात। यह देख-जानकर बेहद खुशी हुई कि इस पुस्तक के लेखक और संपादक ही केवल औरंगाबाद से नहीं जुड़े हुए हैं, बल्कि उसके मुद्रक भी इसी जिले के हैं। जिले में जिस तरह सुविधाओं का विकास होता जा रहा है, वह हर्ष का विषय है। बढ़िया छपाई के लिए नव बिहार टाईम्स प्रेस को बधाई।
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