पुस्तक | शब्द मेरे सुनो, अर्थ अपने गुनो |
संपादक | नियति कल्प |
प्रकाशक | बोधि प्रकाशन, जयपुर |
मूल्य | 200 रुपये |
समीक्षक | रंजन कुमार सिंह |
पुस्तक | समग्र से आगे |
संपादक | नियति कल्प |
प्रकाशक | यश पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली |
मूल्य | 599 रुपये |
समीक्षक | रंजन कुमार सिंह |
इसी साल सितम्बर माह के लगभग अन्त में मुझे किसी अजनबी का ईमेल प्राप्त हुआ।
आदरणीय सर,
नमस्कार।
स्व. रामगोपाल ‘रुद्र’ जी को आप जानते होंगे। इस वर्ष उनकी 110 वीं जयंती है। इस अवसर पर रुद्र जी पर केंद्रित आलेखों/ संस्मरणों की एक किताब लाने की योजना है।
आपके पिताजी आदरणीय स्व. शंकर दयाल सिंह जी की पुस्तक ‘ मैंने इन्हें जाना’ में उनका एक संस्मरण ‘रुद्र’ जी पर भी है। इस संस्मरण को रुद्र जी की 110 वीं जयंती के अवसर पर प्रकाशित किए जाने वाली पुस्तक में सम्मिलित करने के लिए कृपया सहमति प्रदान करें।
आपसे संपर्क करने की कोशिश मैं कुछ महीनों से कर रहा हूँ। आज संयोगवश website का पता चला तो अभी लिख रहा हूँ।
इस निवेदन के साथ उन्होंने अपना परिचय भी दिया था।
यह बताना उचित होगा कि मैं रुद्र जी का नाती हूँ।
सादर,
चेतन कश्यप
साथ में फोन नंबर भी था। मैंने तत्काल उन्हें फोन किया और अपनी सहमति देते हुए उन्हें इस कार्य के लिए अपनी शुभकामनाएं भी दीं। इतने से मन न माना तो फिर ईमेल का जवाब भी लिख भेजा।
प्रिय चेतन
इससे ज्यादा खुशी की और क्या बात हो सकती है भला कि रुद्र जी की स्मृति को चिरस्थायी बनाने की कोशिश में आप लगे हैं।
पिताजी से आदरणीय रुद्र दी का जो संबंध था, वह मुझे याद है। बल्कि मेरे बाल मन पर भी उनकी धुंधली यादें बनी हुई हैं।
पिती जी के आलेख का उपयोग उनके स्मृति ग्रंथ में करने को लेकर मेरी सहमति मांग कर आपने इस पुनीत कार्य में मुझे भी भागीदार बना डाला है। इसके लिए मुझे आपका आभारी होना चाहिए। कहने की जरूरत नहीं कि इसके लिए अपनी सहमति देते हुए मैं स्वयं को कितना सौभाग्यशाली मान रहा हूं।
आपसे बातें कर के भरपूर आनन्द का अनुभव हुआ। आशा है आप सपरिवार स्वस्थ-प्रसन्न होंगे।
मेरी कोशिश होगी कि जब कभी रांची आऊं तो आपसे अवश्य मिलूं।
वाकई कुछ छवियां समय के साथ धुंधली नहीं पड़ती या यूं कहें कि काल भी उन्हें कल्वित करने में समर्थ नहीं हो पाता। रामगोपाल रुद्र जी की छवि भी कुछ ऐसी ही है। जाने क्यों, पायजामा और कुर्ता में साईकिल पर सवार रुद्र जी की छवि आज भी मेरे दिल में उसी तरह अंकित है, जैसे कि वह आज की ही बात हो।
मेरे इस ईमेल का जवाब भी उसी तत्परता और सौम्यता से मिला।
अनुमति देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। उससे भी बढ़कर इसलिए कि आपने खुद फोन लगा कर बात की। मुझे कितना अच्छा लग रहा है, कितना शुभ-शुभ महसूस हो रहा है, बता नहीं सकता।
मैंने फिर उन्हें नहीं लिखा। हां, अगर लिखता तो यही लिखता कि यह शुभता मेरी दी हुई नहीं है, बल्कि पूरी तरह उनकी अपनी है। यह शुभता उन्हें विरासत में मिली है। यह शुभता उनके संस्कारों में घुली है। और इसी शुभता का परिणाम है उनका यह संकल्प कि रुद्र जी की 110वीं जयन्ती पर उनके व्यक्तित्व पर केन्द्रित पुस्तक लाई जाए।
अभी साल बीता भी नहीं है और इस संकल्प का फल मेरे हाथों में है। एक पुस्तक नहीं, बल्कि दो पुस्तकों के रूप में। शब्द मेरे सुनो, अर्थ अपने गुनो में रामगोपाल रुद्र जी के व्यक्तित्व और कवित्व पर केन्द्रित औरों के आलेख हैं, जबकि दूसरी पुस्तक समग्र से आगे में रुद्र जी की अब तक असंकलित रचनाएं हैं।
पहली पुस्तक का शीर्षक आप से आप मेरा ध्यान आकृष्ट कर लेता है, शब्द मेरे सुनो, अर्थ अपने गुनो। यह उनकी ही रचना चितवनों से रचित की पंक्ति है, जो समग्र से आगे में संकलित है। आज जहां यह दुराग्रह है कि सुनो भी मेरा, गुनो भी मेरा, वहां यह पंक्ति कितना सुकून देती है। कहीं से भी यह दुराग्रह नहीं कि मैंने जो कह दिया, सो कह दिया – वही अंतिम वाक्य है, वही अनन्तिम सच है। हमारे आचार-विचार में इस सोच का आज लोप हो चला है।
पुस्तक खोल कर सबसे पहले अपने पिताजी का आलेख ही खोजता हूं। शीर्षक है, ‘न वे बूढ़े होंगे, न उनका स्वर बूढ़ा होगा’। डा0 श्रीनिवास को उद्धृत करते हुए पिताजी ने लिखा है, “निश्छल मुस्कान, सुनहली मूरत, भव्य ललाट, प्लैटिनम वर्ण के लहराते केश-पुंज से मंडित माथा।“ उनकी यही छवि तो मैं अपने बचपन से आज तक अपने दिल में पाले हुए हूं। लगता है मानो वे साक्षात खड़े हैं मेरे सम्मुख।
बचपन में वह हमें दिख जाया करते थे अपनी साईकिल पर। मैं उनकी ओर ईशारा कर के पिताजी को बताता था, देखिए-देखिए साईकिल वाले बाबा जा रहे हैं। तब पता नहीं था, या शायद यह सोच भी नहीं थी कि वे कहां से आते हैं और कहां को जाते हैं। पिताजी के आलेख से यह पता चलता है, “किसी उत्सव, महोत्सव, कवि सम्मेलन, साहित्यिक गोष्ठी, जयन्ती, श्रद्धांजलि, शादी, छठी, किसी का भी उन्हें आप निमंत्रण भेज कर देखें, बना किसी हीला-हवाला के उनकी साईकिल आपके दरवाजे पर आकर लग जाएगी।“
1986 से पटना से नवभारत टाईम्स का प्रकाशन शुरु हुआ। मैं भी उसकी संपादकीय टीम का सदस्य हुआ। तब कम्प्यूटर का जमाना नहीं आया था। संवाददाता, उपसंपादक, कम्पोजिटर, और प्रूफ रीडर मिलकर काम करते थे। एक दिन प्रूफ रीडिंग सेक्शन में जाने का मौका पड़ा तो वही साईकिल वाले बाबा दीख पड़े। रामगोपाल रुद्र जी प्रूफ रीडिंग सेक्शन के प्रभारी के तौर पर हमारी संपादकीय टीम की शोभा बढ़ा रहे थे। उनकी पैनी नजरों से वर्तनी या व्याकरण की कोई अशुद्धि बच नहीं पाती थी। पिताजी के आलेख के शीर्षक को यदि मैं लिखता तो वह होता – न वे बूढ़े होंगे, न उनकी आँखें बूढ़ी होंगी।
पुस्तक में मंगलमूर्ति जी का भी आलेख है। रुद्र जी के हवाले से ही मंगलमूर्ति जी बताते हैं कि रुद्र जी ने मम्मटाचार्य के काव्य प्रकाश का गहन अध्ययन किया था। इसके एक अध्याय में काव्य के 72 दोष बताए गए हैं। उस अध्याय को खासकर उन्होंने ध्यान से पढ़ा और सोचा कि कोई खूबी मेरी रचना में हो न हो, पर वह निर्दोष तो हो। आगे वह बताते हैं, “तो यह मेरा एक सिलसिला ही हो गया, विद्यार्थी के तौर पर ढंग ही हो गया कि मैं शुद्धता पर अधिक ध्यान देता हूं, जोर देता हूं कि रचना निर्दोष हो।“ उनका यह सिलसिला नवभारत टाईम्स में भी कायम रहा और उनका वह अभ्यास हमारे बहुत काम आया।
शब्द मेरे सुनो, अर्थ अपने गुनो पुस्तक दो खंडों में विभक्त है। पहले खंड में उनके कवित्व पर विचार किया गया है तो दूसरे खंड में उनके व्यक्तित्व के अनेक छुए-अनछुए पहलुओं को रेखांकित किया गया है। पिताजी, मंगलमूर्ति जी तथा डा0 श्रीनिवास के अलावा राजेश जोशी, अरुण कमल, आलोक धन्वा, बुद्धिनाथ मिश्र प्रभृति विभूतियों के आलेख इसमें शामिल हैं। दूसरी पुस्तक में रुद्र जी की वे रचनाएं हैं जो अब से पहले कहीं संकलित नहीं थीं। आचार्य नन्द किशोर नवल ने 1991 में रुद्र समग्र तैयार किया था। जाहिर है कि समग्र से आगे में वे रचनाएं शामिल हैं जो किन्ही वजहों से तब छूट गई थीं।
वैसे तो रामगोपाल रुद्र जी ने बहुत कुछ लिखा है। और जो भी लिखा है, वह उन्हें हिन्दी के शीर्ष कवियों की पंक्ति में स्थान देने को काफी है, पर उनकी नामाक्षरियां तो हिन्दी भाषा और साहित्य को उनका बड़ा अवदान हैं। इस विशेष प्रकार की कविताई में वह बेहद निपुण थे। किसी के भी नाम के सभी अक्षरों का उपयोग कर वह तत्क्षण कविता बना देते थे। उस कविता की हरेक पंक्ति की शुरुआत उसी अक्षर से होती थी जो कि नाम में शामिल हो और वह भी उसी क्रम में। इसकी एक बानगी शिवपूजन सहाय जी पर उनकी नामाक्षरी में देखी जा सकती है, जो समग्र से आगे में शामिल है।
शिशिर अंक में पंकरहित करुणा का पावस
वदन-हास में शरद भृंग दृग में सुमनोरस
पूर्णकामवत, चिदाराम, संतोष-सुखाकर
जनहित साधक मौन, विशोषितप्राण-वर्तिधर
नहीं कहें किसको, कैसे? अतिशीलभूरु मन
सज्जनता, नय, विनय, सादगी के एकायन
हालाहल पीकर पीयूष उगलनेवाले
यहां कहां अब ऐसे हिन्दी के रखवाले
इसमें हरेक पंक्ति के प्रथमाक्षर को जोड़कर शिवपूजन सहाय का नाम पढ़ा जा सकता है। यह प्रतिभा नैसर्गिक तो थी ही पर इसमें उनका काव्याभ्यास भी परिलक्षित है। इसके अलावा शब्दों का जो वृहद भंडार उनके पास था, वह भी देखा जा सकता है।
रामगोपाल रुद्र जी की एक कविता की पंक्तियां हैं,
बिजली ही थी कि पार लग पाया
किस कयामत का वह अंधेरा था
मैं नहीं जानता कि ये पंक्तियां उन्होंने किस मनस्थिति में लिखी थीं, पर यह उनके जीवन का अंतिम सत्य साबित हो गया। 19 अगस्त 1991 को वह अपना काम समेटकर नवभारत टाईम्स के कार्यालय से घर के लिए रवाना तो हुए पर नियती को कुछ और ही मंजूर था। तेज आंधी के साथ बारिश हो चुकी थी। अंधेरा ऐसा था कि रास्ता नहीं सूझता था। पर इस ‘पायेदार शाईर’ ने तो मानो पहले ही दूर तक देख लिया था – न सिर्फ उस परिचित सड़क को जिसपर चलने का उन्हें पूरा अभ्यास था, बल्कि उस भविष्य तक को जिसकी कल्पना मात्र से ही किसी का दिल दहल उठे।
शायद अंधेरे में उनकी साईकिल का पहिया सड़क पर टूट कर गिरी तार में उलझ गया और वे धम्म से नीचे आ गिरे। बिजली की नंगी तार उनके बदन से छू गई और ‘बिजली ही थी कि पार लग गया’। वह रात ‘कयामत की रात’ बन गई। वह छोड़ गए उस दुनिया को जो उनके देखते-देखते ही न जाने कितना बदल गई थी
कितनी बदल गई है दुनिया
सचमुच एक नई है दुनिया
हृदयहीन मिथ्याडंबर की
छल जंजालमयी है दुनिया
रुद्र जी जैसा सरल, सहज और निश्छल प्राणी इस बदलती हुई दुनिया से भला कितने दिन तादाम्य बैठा पाता।
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