पुस्तक | 841446 मुकाम पोस्ट नरेन्द्रपुर |
संपादक | निधीश त्यागी / अतुल चौरसिया |
प्रकाशक | तक्षशिला पब्लिकेशन, नई दिल्ली |
मूल्य | 300 रुपये |
समीक्षक | रंजन कुमार सिंह |
मेरे पिता कहा करते थे, और शायद उन्होंने कहीं लिखा भी है कि गाँवों के सबसे बड़े दुश्मन पढ़े-लिखे लोग होते हैं। चाहे वे गाँव में रहकर पढ़-लिख गए हों या फिर गाँव के संसाधनों से, पढ़ाई पूरी करते ही वे गाँव छोड़ देते हैं। यही नहीं, शहर की जीवन शैली का आकर्षण दिखलाकर वह दूसरों को भी गाँव छोड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। नतीजतन, गाँवों के विकास का जिम्मा ऐसे लोगों के कंधों पर आ पड़ता है जो शहर जाकर खुद अपनी गुजर बसर के लायक नहीं होते।
पिता जी की यह बात सोलहों आने सही है। पर काश उन्होंने सीवान के नरेन्द्रपुर में परिवर्तन को देखा होता। ऐसा नहीं कि वह कभी यहां आए नहीं। बल्कि नरेन्द्रपुर के माध्यमिक स्कूल की इमारत में उनका योगदान भी रहा। पर जब तक यहां परिवर्तन बन कर तैयार हुआ, वह स्वयं परिवर्तन के बंधन से मुक्त हो चुके थे।
जिसने भी परिवर्तन को देखा है, वह यह जानता है कि गाँव में शहर की सारी सुविधाएं पूरी तरह मयस्सर हैं। पहले-पहल यहां आने वालों को हैरानी हो सकती है कि किसी गाँव में इतनी सुविधाएं जुटाई जा सकती हैं और वह भी बिहार के किसी गाँव में जिसके पिछड़ेपन के किस्से अखबारों के लिए कभी कम नहीं पड़ते। और यह संभव हो सका है, उसी गाँव के सपूत संजीव कुमार की बदौलत जो पटना में पढ़-लिखकर भी अपना गाँव नहीं भूले। परिवर्तन दरअसल इस गाँव का ऐसा प्रांगण है, जहां रहने-ठहरने से लेकर पढ़ने-सीखने की ऐसी व्यवस्था है जिसपर देश के गाँव तो गाँव, अनेक शहर भी रश्क करेंगे।
और इसी परिवर्तन परिसर में जुटान हुआ देश के जाने-माने नौ पत्रकारों का। नीधीश त्यागी जैसे वरिष्ठ पत्रकार से लेकर अर्पणा चंदेल जैसी युवा प्रेसकर्मी तक और अतुल चौरसिया जैसे तेज-तर्रार खबरनवीस से लेकर शिरीष खरे जैसे मंजे हुए खबरिया तक। इनके अलावा इस्मत आरा, पुष्यमित्र, प्रज्ञा श्रीवास्तव, मोनिका मारांडी, मीना कोतवाल और मनदीप भी। सभी एक से बढ़कर एक। सभी आज के हो-हल्ला से दूर रहकर खबरों को बीनने-छानने वाले। और इस जुटान का प्रतिफल ‘841446 मुकाम पोस्ट नरेन्द्रपुर’ मेरे सामने है, जिसमें शामिल हैं बदलाव और उम्मीद के सात रिपोर्ताज।
अब से पहले इसी परिवर्तन परिसर में देश के नामी-गिरामी कथाकार जुटा करते थे। उनकी जगह इस बार ले ली पत्रकारों ने। वैसे भी कहानियां तो दोनों ही लिखते हैं, कथाकार भी और पत्रकार भी। हां, एक की कहानी में जहां कल्पनाओं की उड़ान होती है, वहीं दूसरे की कहानी में तथ्यों की पकड़। कहानीकार जहां अपने मन की गहराइयों में डूबकर बाहर के सत्य को उद्घाटित करता है, वहीं पत्रकार बाहर के सत्य से रू-ब-रू होकर अपने मन की गहराइयों में झांकता है। इन दोनों प्रक्रियाओं में दो विभिन्न विधाएं आकार लेती हैं। एक को हम कहानी कहते हैं तो दूसरे को फीचर।
‘841446 मुकाम पोस्ट नरेन्द्रपुर’ में देश के गाँवों की धड़कन को पकड़ने की कोशिश की गई है। हालांकि नरेन्द्रपुर जिस अंचल का हिस्सा है, वह भारत के अन्य ग्रामीण अंचलों से भिन्न है। इस्मत आरा यहां पहुंचकर खुद से ही सवाल करती हैं, बिहार के दूसरे जिलों से सीवान कैसे अलग है? और जवाब भी उन्हें खुद-खुद मिल जाता है, खाड़ी के देशों में रोजगार के लिए जाने के रुझान ने सीवान में बहुतों की ज़िन्दगियों पर असर डाला है। उनकी ज़िन्दगी ने खुशहाली की ओर बड़ी करवट ली है। हालांकि इस खुशहाली की कीमत महिलाओं को अपने अकेलेपन से चुकानी पड़ी है।
यह समस्या कोई आज की नहीं है। भिखारी ठाकुर का प्रसिद्ध नाटक बिदेसिया इसी पक्ष से जुड़ा है। अन्तर सिर्फ इतना है कि तब परदेस कलकत्ता हुआ करता था, जबकि अब उसका क्षितिज मुंबई और सूरत से भी बढ़कर दुबई, ओमान, कतर, सऊदी अरब तक जा पसरा है।
इस्मत आरा का आलेख जहां परदेस में कमाने गए कामगारों की माँ-बीबी के डर और अकेलेपन की कहानी बयान करती है, वहीं शीरिष खरे की नजर लॉक डाउन की वजह से घर लौटने को मजबूर मजदूरों पर रही है। सिर पर गठरी, पाँवों में छाले – यह दृश्य आज भी भुलाते न भूलता है। इस लॉक डाउन के बाद हालात कहीं अधिक जटिल और विकराल हुए हैं। वे न तो घर के रह गए हैं, न घाट के। घर में उनकी वह इज्जत न रही और बाहर उनके लिए वह काम न रहा। प्रवासी मजदूरों की वापसी से एक ओर जहां गाँव आबाद हुए हैं, वहीं दूसरी ओर उनके अपने घर आर्थिक संकट से तबाह हुए हैं। जाएं तो जाएं कहां? कोई कंपनी ठेकेदार उन्हें बुलाए तो सही। गाँव-जवार में तो पहले भी काम नहीं था, अब तो देस-परदेस में भी छटनी का दौर है।
जाहिर तौर पर बिहार जैसे राज्यों से जो पलायन हुआ, उसके मूल में बेरोजगारी है। शिरीष खरे इस मुद्दे को पूरे प्रांत के परिदृश्य में देखने की कोशिश करते हैं। वह हमें बतलाते हैं, स्वतंत्रता के बाद एक समय था जब देश की 40 प्रतिशत चीनी अकेले बिहार से आती थी, लेकिन एक के बाद एक कई चीनी मिलें बंद होती चली गई। … इसी प्रकार पूर्णिया, अररिया, कटिहार की जूट मिलें भी बंद हो गई। … इधर रोहतास के डालमियानगर में सीमेंट, कागज और वनस्पति तेल के कारखाने भी बंद हो गए। … एक ओर पुराने उद्योग धंधे बंद होते चले गए, दूसरी ओर राज्य में नया निवेश या नई इंडस्ट्री नहीं आई।
पुश्यमित्र हमें वापस मुकाम नरेन्द्रपुर लिए आते हैं। उनका आलेख कारीगर से मजदूर और फेरीवाला बनते लोगों की कहानी है। जमालहाता के रेयाज अहमद के हवाले से वह बताते हैं, एक जमाना था जब गाँव के हर घर में चार-चार, पाँच-पाँच लूम चला करते थे। यह अस्सी के दशक की बात है। … घर-घर में चादर, लूंगी, मच्छरदानी, धोती, क्या-क्या नहीं बनता था। यूपी के खलीलाबाद से व्यापारी हमेशा इस गाँव में आते थे। हफ्ते में दो बार यहां से कम से कम दो ट्र्रक माल लदकर वहां जाता था। … अब इस गाँव में गिनती के 50 लूम भी नहीं बचे हैं।
और ये पचास भी क्या बचते, अगर परिवर्तन यहां न होता! इसमें से आधे तो परिवर्तन के लिए ही काम कर रहे हैं। संस्था की ओर से एक मास्टर बुनकर बहाल है जिसका काम ही है इन स्थानीय बुनकरों की मदद करना। संस्था की ओर से उन्हें कच्चा माल उपलब्ध कराया जाता है, और तैयार माल उनसे लेकर उन्हें अगले दिन ही उसका भुगतान कर दिया जाता है। परिवर्तन तो खैर गैर-सरकारी, गैर-लाभार्थ संस्था है पर दो ऐसी संस्थाएं भी यहां सक्रिय हुई हैं, जो व्यावसायिक तरीके से परस्पर लाभ के लिए काम करती हैं। इनके नाम हैं सबरंगी और सृजनी। इसी का परिणाम है कि लोगों को नियमित काम मिल पा रहा है और उनकी नियमित कमाई हो जाती है।
पर इन पचास के अलावा जो हैं, वे फेरियां लगाने को मजबूर हैं। अपनी साईकिल या मोटर साईकिल पर वे मिल की बनी चादरें, मच्छरदानियां, सलवार-सूट आदि लादकर सुबह निकल जाते हैं और देर शाम घर लौटते हैं। दिन भर में सौ-दो सौ की कमाई हो जाती है। जिनके पास मिलों के कपड़े खरीदकर उन्हें बेचने का जरिया भी नहीं, वे दिहाड़ी मजदूरी करने को बाध्य हैं।
हालांकि लोग चाहे पैसा कितना ही कमा लें पर उनकी सामाजिक स्थिति कम ही बदलती है। दलित, दलित ही रह जाता है और पिछडा, पिछड़ा ही। कमाई उन्हें आर्थिक सुरक्षा भले ही दे दे पर उनका सामाजिक ओहदा वैसा का वैसा ही रह जाता है। बड़हुलिया के प्रदीप के हवाले से मीना कोटवाल बताती हैं, गाँव में बहुत जातिवाद है। … गाँव के कुछ सवर्ण आज भी हमारे घर के चौखट पर नहीं आते। हमारे यहां खाना नहीं खाते। हमारे शादी-विवाह में नहीं शामिल होते। … हमारे पास पैसा भी है, हम पढ़े-लिखे भी हैं, लेकिन जाति हमसे पहले आ जाती है।
इसी गाँव की शीला देवी की व्यथा कथा उससे भी अधिक है। लोग उससे काम लेने में हिचकते हैं, ये चमार है और वो भी मेहरारू। इससे क्या होगा? मेहरारू तो कमजोर होती है मर्द से। इसकी जगह किसी और को काम दे दो। वह आगे बताती है, वे सब मेरे साथ छुआ-छूत रखते हैं। केवल खेत में फसल काटने का काम देते हैं। प्रदीप और शीला ही नहीं, यहां स्थानीय स्कूल के प्रधानाध्यापक प्रेमचन्द तक का कहना है, यहां कुछ लोगों को मेरी जाति से दिक्कत है लेकिन वे सामने नहीं दिखाते क्योंकि उन्हें पता है कि मैं पढ़ा-लिखा हूं और अपने अधिकार जानता हूं।
परिवर्तन ने यहां अनेकों को अधिकारसंपन्न किया है, खासकर महिलाओं को। परिवर्तन की बदौलत लोग आर्थिक तोर पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक तौर पर भी सशक्त हुए हैं। भवराजपुर की तारादेवी को उद्धृत करते हुए अर्पणा चंदेल बताती हैं, बाहर जाना तो दूर की बात, घर में भी घूंघट में ही रहना पड़ता था। रईसा खातून का भी कुछ ऐसा ही कहना है, पहले घर में रहते थे। परदे से बाहर नहीं आते थे। कोई दरवाजे पर भी आ जाए तो उससे बात नहीं करते थे। हमें कोई नाम से भी नहीं जानता था। आज गाँव, पड़ोस के सभी लोग हमारा नाम जानते हैं। परिवार में भी काम को लेकर कई शंकाएं थीं लेकिन परिवर्तन के आने के बाद उन लोगों का मन भी बदल गया। और रजिया खातून तो सीने पर हाथ रखकर, सिर उठाकर एक सांस में अपनी बात कह देती है, वही परिवार है, वही समाज है, जो बदलने के लिए तैयार न था। लेकिन जब मैं बदली तो पूरी दुनिया ही बदल गई।
लोगों की मानसिकता में बदलाव लाने के उद्देश्य से परिवर्तन ने दो और बड़े काम किए हैं। खुद अपनी नाचक मंडली खड़ी की है जो गाँव-गाँ जाकर या फिर ग्रामीणों को अपने ही परिसर में बुलाकर उन्हें स्तरीय नाटक दिखाता है। ये नाटक उनका मनोरंजन तो करते ही हैं, उनके जाने-अनजाने उनके संस्कार का उन्नयन भी करते हैं। रंगचटोली के निर्देशक आशुतोष के हवाले से मनदीप पूनिया बताते हैं, नाटक के बाद लोगों में बेचैनी होती है कि ये लोग क्यों ऐसा दिखा रहे हैं। नाटक समाज का आईना होता है। आईने में अपनी शक्ल देखने के बाद इंसान अपनी बिगड़ी जुल्फों को तो थोड़ा सुधारता ही है।
यदि नाटकों में उसे देखनेवालो के संस्कार बदलने की शक्ति है तो खेलों में उसे खेलनेवालों का विश्वास जगाने की शक्ति। और इसीलिए नाटक के साथ-साथ परिवर्तन ने खेलों को भी सामाजिक परिवर्तन का जरिया बनाया है। महिलाओं को नाटकों में अभिनय के लिए जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, लगभग वैसी ही चुनौतियों का सामना उन्हें मैदान में खेलने के लिए भी करना पड़ा है। प्रज्ञा श्रीवास्तव ने ऐसी ही कुछ बच्चियों से बात की। शिब्बू ने बताया, जब हमने यहां आना शुरु किया तो बहुत से लोग कैरेक्टर पर सवाल उठाते थे। घर पर आकर लोग बोल जाते ते मेरे माता-पिता को कि मुसलमान होकर तुम्हारी बेटी पहनेगी हाफ पैंट तो बाकी सब लड़कियां क्या सीखेंगी। अमिता का कहना था, मैंने बॉय कट करवाया है तो मेरे गाँव वाले बहुत कमेंट करते हैं कि लड़का बनी फिरती है।
नरेन्द्रपुर और इसके आसपास की ये लड़ियां कबड्डी खेलती हैं, साईकिल चलाती हैं और फुटबाल खेलती हैं। परिवर्तन ने खेल के लिए उन्हें अच्छी सुविधाएं दिलाने तथा उनके लिए सुरक्षित माहौल बनाने का काम किया है। इसी का नतीजा है कि उनमें से कुछ लड़कियां राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में भाग ले चुकी हैं। उनकी उपलब्धियां देखकर अब कोई उनपर फब्तियां नहीं कसता। यही बात नाटकों में भूमिका निभानेवाली लड़कियों के लिए भी कही जा सकती है। नाटकों का मंचन करने के लिए वे पटना से लेकर मुंबई तक की यात्रा कर चुकी हैं। अब उन्हें सामाजिक मान्यता ही नहीं मिली है, बल्कि कुछ हद तक उनका सम्मान भी बढ़ा है। उनका अपना आत्म विश्वास और आत्म सम्मान तो बढ़ा ही है।
परिवर्तन आहिस्ता-आहिस्ता ही सही, पर होता जरूर है। कहीं अच्छे के लिए होता है तो कही बुरे के लिए। मुकाम पोस्ट नरेन्द्रपुर मैं आयोजित कार्यशाला से जो ‘841446 मुकाम पोस्ट नरेन्द्रपुर’ छनकर आया है, वह बेहद रोचक तो है ही, परिवर्तन के जरिये हो रहे सकारात्मक सामाजिक-आर्थिक बदलाव का भी तथ्यपरक साक्ष्य है। इसके लिए पुस्तक में शामिल ये सात रिपोर्टर तो बधाई के पात्र हैं ही, इस कार्यशाला के संयोजकद्वय निधीश त्यागी तथा अतुल चौरसिया भी कम बधाई के पात्र नहीं।